Sunday, March 21, 2010

आंसू बन कर निकल पड़ा मैं...

आंसू बन कर निकल पड़ा मैं,
एक पतली पाक सी धार बन कर चल पड़ा मैं,
आँखों के कोनों से रास्ता बनाता हुआ
धीरे-धीरे नीचे गिर पड़ा मैं|

अपनी मर्ज़ी का मालिक कभी न बन सका मैं,
दूसरों की नज़रों से दुनिया देखता रहा मैं,
अपने मकसद के बारे में कोई ख़बर नहीं थी इससे पहले कभी
उनकी आँखों की गहराइयों में छिपा सुकून से सोता रहा मैं|

सामने सी आती हुई सर्द हवा का झोंका लुभाया करती थी मुझे,
अपने साथ उड़ने को जैसे बुलाया करती थी मुझे,
नम तो मैं हमेशा से ही रहा हूँ
पर हर बार मानसून के पहले जाने क्यों भिगोया करती थी मुझे|

उत्सुक था वजह जानने के लिए मेरे अस्तित्व की,
पर बताने वाला कोई नहीं मिला कभी|
भयभीत था आने वाले उस अनजान राह से,
पर दिखाने वाला कोई नहीं मिला कभी|

कई आड़े-तिरछे आकारों को पार कर
अचानक एक बड़े ढ़लान पर जा अड़ा|
एक हमशक्ल मुझे मेरा मिला जो
मुझे देखकर मुस्कुराया और फिर मेरे साथ चल पड़ा|

मैंने पुछा उससे 'कौन हो? क्यों हो?'
एक आम अजनबी सरीके मुझे देखा और बोला-
'कोई लिखित इतिहास नहीं है मेरे यहाँ होने की,
कभी हँसते-हँसते तो कभी रोते-बिलखते हूँ मैं निकाला गया'|

इससे पहले की हम धरती को छू पाते,
किसे ने हमारे होने की वजह उनसे पूछ ही लिया|
कुछ ही पलों की आहट थी की
उन्होंने सारी भावनाएँ शब्दों के रूप में उगल दिया|

जीवन रुपी नाट्य के अर्ध भाग में
परदे के खुलते ही रहस्य से रू-ब-रू हो गया|
जिन अभिनेताओं के पंखहीन पंछी सामान हैं,
उनकी भावना-अभिव्यक्ति के लिए मुझे बनाया गया|

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