Sunday, July 4, 2010

ऐ अंकुश...

आज इतना क्यों डगमगा रहा है अंकुश,
उस दिये को भी अपने आगोश में जलने दे|
कहने से इतना क्यों डर रहा है अंकुश,
उसके आलोक को अपने सिरे भी तो रहने दे|

कल्पनाओं के साए में रहकर, ऐ अंकुश,
क्यों कर रहा है हक़ीक़त की उपेक्षा|
बहने दे उन लफ़्ज़ों को हवाओं में अंकुश,
बेसब्र होने लगी है पल-दो-पल उनकी अपेक्षा|

उनकी ख़ामोशी भी अब बोलने लगी है अंकुश,
अब तो खुली आँखों से देखना सीख ले|
थोड़ी-थोड़ी देर भी अब होने लगी है अंकुश,
अंधेरे से पहले-पहल ही दीवार भींच ले|

कब तक अपने अश्रु पीता रहेगा, ऐ अंकुश,
कुछ उनके हक़ में गिर भी तो जाने दे|
उनकी पूजा में कब तक त्याग करेगा अंकुश,
उस ख़ुदा को अपनी प्रार्थना सुन भी तो लेने दे|

आज कह रहा हूँ, कल शायद ना कहूँ अंकुश,
आज वज़ह भी है और वाक़या भी|
आज यहाँ मैं हूँ, कल शायद ना रहूं अंकुश,
आज तू भी वहाँ है और वो भी...

इतनी देर ना कर देना कहीं अंकुश,
कि उनकी मंज़िल ही बदलने लगे|
हमसफर तो तेरे सामने ही है अभी अंकुश,
कहीं उनके कदम भी ना डगमगाने लगे|

दबी-दबी सासें लिए क्यों चल रहा है अंकुश,
आज ज़रा सी हिम्मत तू और कर ले|
कहने से इतना क्यों डर रहा है अंकुश,
ज़िंदगी के लिए, ऐ अंकुश, एक आख़री बार मर ले...

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